नई दिल्ली। राज्यों में गठबंधन की सियासत पर तेजी से कदम बढ़ा रही कांग्रेस अपने राजनीतिक संकट के दौर से उबरने के लिए एक बार फिर पार्टी के ‘शिमला संकल्प पत्र’ की राह पर तेजी से कदम बढ़ाने लगी है। राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी राजनीति में तृणमूल कांग्रेस की अनिवार्य जरूरत के बावजूद पश्चिम बंगाल चुनाव के लिए वामदलों से गठबंधन की तैयारी इसका ताजा नमूना है।
राजनीतिक वापसी के लिए सूबों में गठबंधन की राह पर तेज कदम बढ़ा रही पार्टी
पार्टी के अंतरिम अध्यक्ष के तौर पर सोनिया गांधी के बीते एक साल के कार्यकाल के दौरान बिहार के मौजूदा चुनाव समेत लगभग सभी चुनावों में कांग्रेस ने गठबंधन को ही अपना सियासी पतवार बनाया है। पिछले दो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की राजनीतिक जमीन सिकुड़ने के साथ ही नेतृत्व संकट के दौर से उबरने की कोशिश कर रही पार्टी के लिए राज्यों में फिर से अपने आधार को मजबूत करने की दोहरी चुनौती है।
इस चुनौती की मजबूरी ही रही कि बिहार में कांग्रेस ने मनमाफिक सीटें नहीं मिलने के बावजूद राजद के साथ चुनावी गठबंधन जारी रखने का फैसला किया। महागठबंधन के चुनाव अभियान का एजेंडा सेट करने और पहले चरण की वोटिंग के जमीनी फीडबैक के आधार पर कांग्रेस इस फैसले को अभी से सही भी आंकने लगी है।
महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार के बाद बंगाल में भी जारी रहेगा गठबंधन का प्रयोग
बिहार से पहले कांग्रेस ने पिछले साल झारखंड में जेएमएम के साथ गठबंधन कर चुनावी कामयाबी हासिल की। जाहिर तौर पर इसके जरिये सूबे की सत्ता-सियासत में पार्टी ने अपनी प्रासंगिकता बहाल की। यहां भी जेएमएम ने गठबंधन में कांग्रेस को उम्मीद से कम सीटें दी थी। इसके बावजूद चुनावी कामयाबी से गठबंधन के सहारे सूबे में सिकुड़ते राजनीतिक आधार को थामने के लक्ष्य में कांग्रेस सफल रही।
बीते ढाई दशक में दूसरी बार चुनौतियों के दौर से गुजर रही कांग्रेस ने लोकसभा के लगातार तीन आम चुनाव हारने के बाद जुलाई 2003 में शिमला संकल्प में वक्त की हकीकत को देखते हुए गठबंधन की राजनीति से परहेज नहीं करने का नीतिगत फैसला लिया।
1996, 1998 और 1999 के तीनों लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को प्रदर्शन लगातार कमजोर होता गया था। गैर कांग्रेसवाद की राजनीति के चलते धर्मनिरपेक्ष विचारधारा वाले तमाम दलों से उसकी दूरी थी। शिमला संकल्प के जरिये कांग्रेस ने इस दूरी को पाटने की राह पकड़ी। 2004 के आम चुनाव में पार्टी को सत्ता में वापस लाने में गठबंधन राजनीति की इस राह की ही सबसे बड़ी भूमिका रही।
वैसे 2019 के लोकसभा चुनाव के बेहद कमजोर प्रदर्शन के बाद राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफे से पैदा हुए भारी उथल-पुथल के दौर में पिछले साल महाराष्ट्र के चुनाव के बाद शिवसेना से दोस्ती में तेजी दिखा कांग्रेस ने यह साफ संकेत दे दिया था कि सियासी रूप से गठबंधन उसके लिए कितना अहम बन गया है। शिवसेना से गठबंधन के लिए कांग्रेस को अपने वैचारिक दृष्टिकोण से भी समझौते करने पड़े।